दक्षिण की राजनीति ने कई रंग दिखाए

कई रंग दिखाए भारत का राजनीतिक तापमान इस पूरे साल काफी गरम रहाआम चुनाव के बेहद तल्ख प्रचार अभियान के साथ 2019 का आगाज हुआ, जो सत्ताधारी पार्टी को मिले विशाल बहुमत के साथ साल के मध्य में अपने अंजाम तक पहुंचा। जिन लोगों ने सोचा था कि नरेंद्र मोदी सरकार की सत्ता में शानदार वापसी के बाद यह गरमी कुछ शांत होगी, वे यह देखकर हैरान रह गए कि नई सरकार ने अपनी दूसरी पारी की शुरुआत से ही आक्रामक रास्ता चुना, मानो अपने चुनावी घोषणापत्र में किए गए वादों को निभाने के लिए उसके पास वक्त ही न बचा हो। अब जब यह साल खत्म होने को है परे देश में अशांति की रिशति पसर गई है। दस सियासी गरमी में दक्षिणी राज्यों का हाल क्या रहा? कर्नाटक में स मय में हा विधानसभा बनाव में भाजण सबसे बड़ी पार्टी तो बनी मगर वह बहमत से डर रद्ध गई थी। बीस बी एस येदियुरप्पा ने मुख्यमंत्री पद की शपथ भी ली, पर बहुमत परीक्षण से पहले ही उन्होंने इस्तीफा दे दियाबाट के घटनाकमों में जनता दल (सेकलर के पच डी कमारस्वामी के नेतत्व में सरकार बनी, पर वह बहुत दिनों तक टिक न सकी। इस वर्ष गठबंधन सरकार में शामिल कांगेस के और जनता दल सेकलनो विधायकों ने बगावत कर दी। रोटियण की मदद से इन सबको मुंबई के एक होटल में रखा गया। इसे "ऑपरेशन कमल 2.0' कहा गया। इसके तहत विरोधी पार्टी के विधायकों को दलबदल कराकर अपना नंबर बढ़ाना था। विधानसभा अध्यक्ष ने इन बागी विधायकों की सदस्यता विधानसभा की शेष अवधि तक के लिा रह कर दी। सपीम कोर्ट ने इन विधायकों की सदस्यता खत्म किा जाने के फैसले को तो सही ठहराया, पर विधानसभा के बाकी बचे कार्यकाल में उनके दोबारा सदस्य न बन पाने के निर्णय को सही नहीं मानानतीजतन बागी विधायकों ने भाजपा के टिकट पर उप-चुनाव लड़ा और इसी महीने की शरुआत में वे चनाव जीतकर फिर विधानसभा में लौट आए। आए। इन उप-चुनावों से पहले मुख्यमंत्री येदियुरप्पा के पास स्पष्ट बहुमत से छह सीटें कम थीं लेकिन अब वह इसे आसानी से पार कर चुके हैं। कर्नाटक के सियासी दांवपेच ने न सिर्फ दलबदल कानून का मजाक उड़ाया, बल्कि वह राजनीतिक नैतिकता को कुछ और नीचे घसीट ले गया। इसका साफ संदेश यही गया कि केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी अपनी ताकत के जरिए दलबदल कराकर किसी भी राज्य सरकार को गिरा सकती हैइस पूरे प्रकरण में एक ही बात सुखद थी कि बागी विधायकों को दोबारा जनता के पास जाना पड़ा। कर्नाटक में जनता दलबदलुओं का साथ दिया और उन्हें फिर से सत्ता में भेजा। मगर सीएए और प्रस्तावित एनआरसी पर जब देशव्यापी बहस शुरू हुई, तो धर्मनिरपेक्षता के पैरोकार लोग खामोश नहीं बैठे, वे इसे भेदभावपूर्ण बताते हुए बेंगलुरु की सड़कों पर बड़ी संख्या में उतर आए। साल 2019 तमिलनाडु के मुख्यमंत्री ई के पलानीसामी लिए बेहद संतोषप्रद रहा। वह न सिर्फ अन्नाद्रमुक में अपनी स्थिति मजबूत करने में कामयाब रहे, बल्कि बड़ी खामोशी उन्होंने उप-मुख्यमंत्री ओ पनीरसेल्वम को भी किनारे लगा दियाएक कमजोर मुख्यमंत्री के रूप में अपनी पारी शुरू करने वाले पलानीसामी की अब पार्टी और सरकार, दोनों पर मजबूत पकड़ है। वैसे तो उनका शासनकाल कोई बहुत अच्छा नहीं रहा, मगर केंद्र के साथ अपनी सरकार के रिश्ते को सुखद रखने में वह सफल रहे हैं तमिलनाडु में अपने पांव जमाने के लिए भाजपा जी-तोड़ कोशिशें कर रही है। दरअसल नरेंद्र मोदी का आकर्षण यहां फिर कारगर साबित नहीं हुआ। अब पार्टी बडी बेसब्री से एक विश्वसनीय स्थानीय नेता की तलाश जुटी है। रजनीकांत के कंधे पर सवार होने की इसकी मंशा भी कामयाब होती नहीं दिख रही क्योंकि वह अभी भी ऊहापोह की स्थिति में हैं। डीएमके और इसके मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार एम के स्टालिन ने संसदीय चुनावों में तो शान लेकिन विधानसभा उप-चुनावों में वह कामयाब नहीं हो सकेकेरल में भाजपा अपनी पैठ बनाने में सफल रही और लोकसभा चनाव में उसने अच्छे-खासे वोट भी हासिल किए हालांकि वह कोई सीट नहीं जीत सकी। राज्य में आई मोर्चे के प्रदर्शन को प्रभावित किया और संसदीय चनाव में वह महज एक सीट पर सिमट गई। सबरीमाला मंदिर मामले में सप्रीम कोर्ट के फैसले को वाम मोर्चा सरकार ने लागू करने का फैसला किया, मगर कांग्रेस और भाजपा ने परंपरावादियों का साथ दियाअब यह फैसला एक बार फिर सप्रीम कोर्ट की बडी पीठ के सामने है। इस बीच, सीएए के विरोध में कांग्रेस और वाम दल साथ-साथ खड़े हैं। साल 2014 के आध प्रदेश के बंटवारे का असर 2019 के संसदीय चुनाव तक काय चंद्रशेखर राव खद को राज्य विभाजन का चैंपियन साबित करने में सफल रहे, वहीं पड़ोसी आंध्र प्रदेश में चंद्रबाबू नायड् इतने खशकिस्मत नहीं रहे। वाईएसआर कांग्रेस के जगनमोहन हाथों उन्हें करारी शिकस्त झेलनी पडीकेसीआर और जगनमोहन के उदय के साथ इन दोनों राज्यों में अधिक निरंकश शासन का भी आगाज हआ है। केसीआर ने अपने मंत्रिमंडल के गठन में एक महीने से भी अधिक वक्त लिया। वह न सिर्फ राज्य परिवहन विभाग के हड़ताली कर्मचारियों के साथ बेहद सख्त पेश आए, बल्कि बड़ी ढिठाई के साथ अपने परिवार को राज्य की राजनीति में स्थापित करने की कोशिश करते रहे। आंध्र प्रदेश में जगन जिस तरह से चंद्रबाबू नायडू के शासन की निशानियों को मिटाने में जुटे हैं, वह उनकी बदले की राजनीति को ही दिखाता है। उन्होंने नई राजधानी अमरावती की निर्माण प्रक्रिया पर तो रोक लगाई ही, उसकी जगह तीन नई राजधानियों की घोषणा कर डाली। यही नहीं, चार-चार उप-मुख्यमंत्री बना दिए। जगन भाजपा को संसद के भीतर और बाहर समर्थन दे रहे हैं, जबकि केसीआर का रुख बदलता रहा है। उनकी पार्टी ने कई विधेयकों पर जहां भाजपा के पक्ष में मतदान किया, वहीं सीएए पर खिलाफ में वोट डाला। ये दोनों मुख्यमंत्री सीएए के विरुद्ध बढ़ते विरोध को देखते हुए संतुलन साधने में जुटे हैं। दक्षिण में कांग्रेस की एकमात्र सरकार पुडुचेरी में मुख्यमंत्री वी नारायणसामी के सियासी कौशल के कारण टिकी हुई है।